तराशा था जिसे खाब्बों में
तलाशता फिरा उसे फिर ज़माने में
पर मिला ना कोई ऐसा अब तलक इस जमाने में
रंग भर दे जो उस मूर्त में
तराशी थी जिसकी सूरत खाब्बों में
यूँ तो सितारें अनेक मिले राहों में
पर चाँद वो नजर ना आया
तराशा था जिसे खाब्बों में
माना हुस्न की कमी ना थी ज़माने में
मगर वो ना मिली
तस्वीर जिसकी बसी थी आँखों में
गुनाह यह दिल का था या आँखों का
गुमान इसका ना था
पर चाहत का यह कैसा अहसास था
अरमानों से तराशा था जिसे
रंग उसके
आज भी तलाशता फिर रहा हूँ राहों में
आज भी तलाशता फिर रहा हूँ राहों में
तलाशता फिरा उसे फिर ज़माने में
पर मिला ना कोई ऐसा अब तलक इस जमाने में
रंग भर दे जो उस मूर्त में
तराशी थी जिसकी सूरत खाब्बों में
यूँ तो सितारें अनेक मिले राहों में
पर चाँद वो नजर ना आया
तराशा था जिसे खाब्बों में
माना हुस्न की कमी ना थी ज़माने में
मगर वो ना मिली
तस्वीर जिसकी बसी थी आँखों में
गुनाह यह दिल का था या आँखों का
गुमान इसका ना था
पर चाहत का यह कैसा अहसास था
अरमानों से तराशा था जिसे
रंग उसके
आज भी तलाशता फिर रहा हूँ राहों में
आज भी तलाशता फिर रहा हूँ राहों में
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (21-09-2015) को "जीना ही होगा" (चर्चा अंक-2105) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्याद शास्त्री जी
Deleteतलाश तो जीवन पर्यंत जलते रहनी है. सुंदर कविता.
ReplyDeleteशुक्रिया रचना जी
DeleteAmazing heart touching poem..
ReplyDeleteAmazing heart touching poem..
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