उजाले में रोशनी कि कवायद थी
पर यहाँ उजाले में भी
अंधरे कि सुगबुगाहट थी
वो मर्मस्पर्शी चेतना मानो
चेतना शून्य हो भटक रही थी
मुश्किल इस डगर कि राह मानो
चमत्कारिक उजियारे कि बाट जोह रही थी
अहंकार के अंधियारे में
जैसे रोशनी कि कोई बिसात ना थी
प्रकाश कि किरणें भी जैसे
सहमी सहमी नजर आ रही थी
भवँर था यह ऐसा
खुदगर्जी के आगे राह नजर आ नहीं रही थी
उजाले से रोशनी कि कवायद थी
पर यहाँ उजाले में भी
अंधरे कि सुगबुगाहट थी
पर यहाँ उजाले में भी
अंधरे कि सुगबुगाहट थी
वो मर्मस्पर्शी चेतना मानो
चेतना शून्य हो भटक रही थी
मुश्किल इस डगर कि राह मानो
चमत्कारिक उजियारे कि बाट जोह रही थी
अहंकार के अंधियारे में
जैसे रोशनी कि कोई बिसात ना थी
प्रकाश कि किरणें भी जैसे
सहमी सहमी नजर आ रही थी
भवँर था यह ऐसा
खुदगर्जी के आगे राह नजर आ नहीं रही थी
उजाले से रोशनी कि कवायद थी
पर यहाँ उजाले में भी
अंधरे कि सुगबुगाहट थी
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (11-02-2014) को "साथी व्यस्त हैं तो क्या हुआ?" (चर्चा मंच-1520) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'