क्यों कैलाश चढूं
क्यों गंगा स्नान करूँ
विसर्जित करदी महत्वाकांक्षाये जब सारी
बलिदानी नहीं मैं कोई
आहुति दे दी तब भी अरमानों की अपनी
संवर जाए शायद जिन्दगी मेरी
मिल जाए मोक्ष यहीं कहीं पर
क्यों भटकू यहाँ वहाँ
ईश्वर जब स्वयं विराज रहे
मेरे ह्रदय बीच आकर
आत्म चिंतन करू मंथन करू
क्यों वैराग्य मैं अपनाऊ
बस नश्वर तन भोगू
मानव कर्म अपने करते जाऊ
क्यों गंगा स्नान करूँ
विसर्जित करदी महत्वाकांक्षाये जब सारी
बलिदानी नहीं मैं कोई
आहुति दे दी तब भी अरमानों की अपनी
संवर जाए शायद जिन्दगी मेरी
मिल जाए मोक्ष यहीं कहीं पर
क्यों भटकू यहाँ वहाँ
ईश्वर जब स्वयं विराज रहे
मेरे ह्रदय बीच आकर
आत्म चिंतन करू मंथन करू
क्यों वैराग्य मैं अपनाऊ
बस नश्वर तन भोगू
मानव कर्म अपने करते जाऊ
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