हाथ जो छूटा महबूब का
रफ़्तार जिन्दगी की थम गयी
खुदा माना था जिसे
वो महबूब हमसे रूठ गयी
था ऐतबार सबसे ज्यादा जिसपे
वो परछाई शून्य में कहीं खो गयी
ये खुदा अब तो यकीन रहा नहीं
खुद के साये पे भी मुझको
जिन्दगी के इस मुक़ाम पर
जीने की कोई वजह भी तो शेष ना बची
रफ़्तार जिन्दगी की थम गयी
खुदा माना था जिसे
वो महबूब हमसे रूठ गयी
था ऐतबार सबसे ज्यादा जिसपे
वो परछाई शून्य में कहीं खो गयी
ये खुदा अब तो यकीन रहा नहीं
खुद के साये पे भी मुझको
जिन्दगी के इस मुक़ाम पर
जीने की कोई वजह भी तो शेष ना बची
No comments:
Post a Comment