दृष्टिहीन समाज हमारा
सुरसा की तरह बड़ रही
सवालों की छाया
फैला अँधियारा दूर तक
दिग्भ्रमित हो
भटक रहे नौ निहालों के कदम
गर्त समा रही चेतना सारी
स्वार्थ भावना से
संसय बनी कमजोरी हमारी
इस काल चक्र ने
बदल दिया सम्पूर्ण रूप
विभस्त हो गया समाज का स्वरुप
विभस्त हो गया समाज का स्वरुप
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