ओजस्व वाणी बहे जिनके मुखारबिंद से
बन श्रृंगार रस की मुधर धारा
उनके ह्रदय कण कण विराजे
प्रेम अनुराग की धारा
स्वयं सरस्वती विराजे
इन मधुर कंठ की छाया
बहे फिर कैसे नहीं
मीठे रस से भरी
प्रेम रस की भाषा
ओजस्व वाणी बहे जिनके मुखारबिंद से
बन श्रृंगार रस की मुधर धारा
उनके ह्रदय कण कण विराजे
प्रेम अनुराग की धारा
स्वयं सरस्वती विराजे
इन मधुर कंठ की छाया
बहे फिर कैसे नहीं
मीठे रस से भरी
प्रेम रस की भाषा
अंतरमन की व्यथा कहने से डरता हु
गैरों के उपहास से
क्रोधाग्नि में जलने से डरता हु
हां मैं स्वीकार करता हु
मैं डरता हु
आत्मसमान की खातिर
आत्मग्लानी में जलने से डरता हु
जिन्दा रहने की लिए
मरने से डरता हु
हां मैं डरता हु
पुलिंदा शिकायतों का
गफलत ही गफलत
कसर ही कसर
ध्यान केन्द्रित नहीं
भूल अपनी स्वीकारे नहीं
औरो के सर
दोष मडने से चुके नहीं
लापरवाह बेरुखी से
किसी कार्य का निष्पादन नहीं
जुदा हो गयी फिर राहें
अधूरी रह गयी
फिर सब हसरतें
सितम वक़्त ने
फिर ऐसा किया
मिलाके बिछड़ने को
फिर से मिला दिया
सुलगते अरमानों को
फिर से बुझा दिया
ह़र लहमों को फिर से
अनजाना बना दिया