उलझ गयी जिन्दगी
मंदिर मस्जिद के द्वन्द में
कोई कहे मंदिर बने
कोई कहे मस्जिद बने
पर ये भूल गए सभी
लिखी हो जिसकी इबारत
बेगुनाहों के खून से
कबूल नहीं होगी
रब को वो इबादत भी कभी
फिर क्यों करे द्वन्द
निकल मंदिर मस्जिद की होड़ से
लिखे एक नई इबारत
क्यों ना फिर भाई चारे के स्नेह की
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