तम्मनाये दिल में अठखेलिया करती है
ख्वाब सच होने के सपने संजोते है
सपने सच हो या ना हो
दिल में उमीद की किरण दिव्यमान करती है
बुलंद हौसलों की चमक
आँखे वयां करती है
तम्मनाये दिल में अठखेलिया करती है
ख्वाब सच होने के सपने संजोते है
सपने सच हो या ना हो
दिल में उमीद की किरण दिव्यमान करती है
बुलंद हौसलों की चमक
आँखे वयां करती है
ओ माँ शेरावाली ओ माये
लेके खाली झोली आये तेरे द्वारे
भर दिए अन्न धन के भंडारे
मुझ निर्धन की कुटिया में आये
ओ माँ शेरावाली ओ माये
जब बबी पुकारे भक्त तुझको
तू दौड़ी चली आये
राख दे हाथ तू जो सर पे
सारी चिंता पल में दूर हो जाये
ओ माँ शेरावाली ओ माये
जो जन ध्यान धरे तेरा
संकट उनको छूने ना पाये
ओ माँ शेरावाली ओ माये
तेरी महिमा गाये सारे नर और नारी
माता तेरी ममता बड़ी दुलारी
ओ माँ शेरावाली ओ माये
किस्मत खुदा ने लिख दी
तक़दीर हमने खुद बना ली
ह़र हार में भी जीत की खुशबू महका दी
कुदरत देखती रह गयी
ओर काँटों की राहों को
फूलों की सेज बना दी
हमने अपनी तक़दीर खुद बना ली
भीगीं भीगीं सी तेरी यादें
महकी महकी सी तेरी साँसे
भीनी भीनी सी दिल की फिजाए
ओ यारा
होले होले जले मन सारा
तडपे जिया
खोजे तेरी बाहों का सहारा
ओ यारा
तेरी यादों की भीनी भीनी खुशबू से
छाये मस्ती चुपके चुपके
चढ़े रंग प्यार का होले होले
ओ यारा भीनी भीनी मीठी मीठी यादें
बेजुबा होती है दिल की जुबा
आँखे बया करती है दिल का हाल
रोग है ऐसा
धड़कने देतीहै सिर्फ साथ
बिन कुछ कहे
तभी हो जाता है
आँखों ही आँखों में प्यार
तारों भरी रात
चन्दा का साथ
संजोये ख्वाब
काश हम भी होते
सितारों में आज
खेल रहे होते
लुका छिपी चाँद के साथ
सुन्दर है वो रचना
फ्रस्फुटीत हो जिसमे जीवन की प्रेरणा
सपन्दन जिसके रचे
नई अंकुरों की सफलता
शब्दों में जिसके छिपी हो
मिठास भरी मृदुता
निहित हो जिसमे
प्रकृति की समीपता
सुन्दर होती है वो रचना
आधार जिसका हो जनाधार
मुक्त कंठो की प्रशंशा का वह है पात्र
बड़ा ही चतुर वह सुजान हो
जिसके हाथों में अवाम की लगाम हो
महारत पाली जिसने इस खेल में
समझो
बादशाहत उसकी जम गयी राजनीति के खेल में
यादों से जिसकी शुरू हो दिन की शुरुआत
वो है यही दिल के आस पास
तभी नज़र आती है
मन मस्तिष्क को
अनजानी आकृति में भी
उनकी ही पहचान
अब तलक तरो ताजा है
उनकी परछाई की भी याद
उलझ गयी जिन्दगी
मंदिर मस्जिद के द्वन्द में
कोई कहे मंदिर बने
कोई कहे मस्जिद बने
पर ये भूल गए सभी
लिखी हो जिसकी इबारत
बेगुनाहों के खून से
कबूल नहीं होगी
रब को वो इबादत भी कभी
फिर क्यों करे द्वन्द
निकल मंदिर मस्जिद की होड़ से
लिखे एक नई इबारत
क्यों ना फिर भाई चारे के स्नेह की
लिखू कैसे शब्द गुम हो गए सारे जैसे
देखा लेखनी को जो नज़र भर
लगा कह रही हो
छोड़ा ना साथ मेरा
ओ मेरे हमसफ़र
थामे रहो तुम मेरी कलाई बस
लिखती चली जाऊँगी उम्र भर
देखना तुम
बरसने लगेंगे जब रंग
याद आने लगेंगे पुनः शब्द तब