चिंता की लकीरे मस्तस्क पे उभर आई
देख के हश्र जिन्दगी का
अंतर्मन की व्यथा मुखरित हो आई
आतंक का ग्रास बन रहा है मानव
सभ्य समाज में ये पीड़ा कहा से चली आई
कहीं इस काल की परछाई
हमारे अपने ही विचार धाराओ की उपज तो नहीं
सोच सोच ये चिंता मन को खायी
भय मुक्त समाज की रचना करने हेतु
किसीने तो करनी होगी पहल आगे आय
इसलिए ले लिया निर्णय ये आज
जलाऊ एक ऐसी मशाल
भस्म हो जाए जिसमे सारे आतंकवाद
कौम के लिए बन जाऊ एक मिशाल
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