नाता तेरे शहर से पुराना हैं
उस बरगद का अफसाना आज का फ़साना सा हैं
दरमियाँ जो समेट ली थी चाहतें
वो तो बस मुलाक़ात का एक बहाना हैं
गुजरू जब कभी तेरे शहर की गलियों से
लगे आज भी चमन खिल आया
मानों पीपल की टहनियों पे
पसरी जहां मेरे शाम की इबादत हैं
तेरे साये में वहा आज भी मेरे रूह की ही हुकूमत हैं
चौखट दहलीज की कभी लाँघ ना पाया
डोली तेरी किसी और किनारे छोड़ आया
फिर भी अपने आँगन से तेरी खनख विदा ना कर पाया
ना ही तेरे वजूद को खुद से रुखसत कर पाया
और उन शबनमी यादों की मिठास में
तेरे शहर से ही रिश्ता निभाता चला आया
उस बरगद का अफसाना आज का फ़साना सा हैं
दरमियाँ जो समेट ली थी चाहतें
वो तो बस मुलाक़ात का एक बहाना हैं
गुजरू जब कभी तेरे शहर की गलियों से
लगे आज भी चमन खिल आया
मानों पीपल की टहनियों पे
पसरी जहां मेरे शाम की इबादत हैं
तेरे साये में वहा आज भी मेरे रूह की ही हुकूमत हैं
चौखट दहलीज की कभी लाँघ ना पाया
डोली तेरी किसी और किनारे छोड़ आया
फिर भी अपने आँगन से तेरी खनख विदा ना कर पाया
ना ही तेरे वजूद को खुद से रुखसत कर पाया
और उन शबनमी यादों की मिठास में
तेरे शहर से ही रिश्ता निभाता चला आया
आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'बुधवार' २६ फ़रवरी २०२० को साप्ताहिक 'बुधवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
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